बगैर मुंह धोए और कुल्ला घुमाए हमने सवेरे उठते ही परम्परागत अंदाज में अखबार खोला, तो खबर दिखी 'अदालत भी जा सकती है केयर्न।'
यकीन जानिए हुजूर.... तभी अपना तो दिल धक् से बैठ गया। गोया 1999 मॉडल की मारुति कार का इंजन घर्र-घर्र कर थम गया हो। गनीमत थी कि इंजन की तरह ना तो दिल घुर्राया और ना ही थमा, पर रसोईघर में प्रात:कालीन अमृतपान की तैयारी कर रही घरवाली गुर्रा उठी। चीखते हुए से उसने पूछा- अरे, क्या हुआ...??? अब, जवाब तो क्या देते? कह दिया- नहीं-कुछ नहीं हुआ, ऐसे ही.....। लेकिन दोस्त! सिर्फ कहने भर से हालात सुधर जाते तो ये ससुर का नाती पाकिस्तान तो कब का अपना यार बन गया होता। कम्बख्त चाईना वालों से भी अपन गलबहियां कर रहे होते। और तो और... सारे आतंकवादी अपने बाबू मुसद्दीलाल के स्वयं-सहायता-समूह से जुड़े समाजसेवी होते या म्युनिसिपलिटी के कर्मचारी। खैर... अपने-राम को पीड़ा इस बात की थी कि अब स्थितियां कहां से कहां तक आ पहुंची। देखिए ना, डेढ़ पखवाड़े पहले की ही तो बात है। तेल निकालने वाली कम्पनी के सीईओ राहुल बाबू कह रहे थे-'हमें सबका सहयोग मिल रहा है। सरकार और ओएनजीसी भी राजस्थान प्रोजेक्ट में हमें पूरा कॉपरेट कर रहे हैं।' पर महीने भर से भी कम वक्त में तस्वीर बदल गई। राजस्थान की सरकार तेल पर 'वैट' मांगने लगी और मांगने ही क्या साहब, वैट वसूलने पर अड़ गई। अब आप तो जानते ही हैं कि 'अडऩा' सबका बुरा होता है। घोड़ा अड़ा तो सवार की हड्डियां चूर, ट्रेन में चढ़ते वक्त कोई मोटा आदमी अड़ गया तो दूसरी सवारियों के ट्रेन छूटने की आशंका भरपूर और तो और गले में सिक्का या फांस, आंख में कंकर या फिर दिमाग में कोई विचार... अड़ा हुआ तो दिक्कत ही देता है। कहते हैं- अड़ा-अड़ी में तो पिद्दी पहलवान भी सूमो-जापानी को 'भचीडऩे' के चला जाता है।
खैर... अपनी सरकार अड़ी 'वैट' पर। हम भी मानते हैं साहब कि अपनी नौकरशाही 'वैट' लेने की आदी है और इसी के चक्कर में बेचारा 'भोलाराम का जीव' (हरिशंकर परसाई जी की व्यंग्य-कथा का पात्र) पेंशन की दरख्वास्त वाली फाइलों में ही अटका रह गया था, पर यहां तो उस तरह के 'वैट' यानी 'वजन' की बात भी नहीं। क्यों कि ये गिनती तो पहले ही सिलेसिलेवार लिखी जा चुकी है। 1-2-3-4 सबकी 'सेटिंग' पहले ही हो चुकी। आप इशारा तो समझ ही गए होंगे! खैर... यहां पर वैट के माइने हैं- वैल्यू एडेड टैक्स। दरअसल, तेल निकालने वाली कम्पनी कह रही है कि इस तेल को हमने खोजा (यह बात और है कि इस पर कई लोगों को आपत्ति है), हम इसको निकाल रहे हैं और काण्डला बंदरगाह तक अपने खर्चे से पहुंचा रहे हैं, तो वैट कैसा? वैट तो तब लगता जबकि तेल राजस्थान का राजस्थान में ही बेचा जाता। ...सो लेना ही है, तो सीएसटी (केन्द्रीय बिक्री कर) ले लो। दोनों तरह के करों में (टैक्स में) फर्क भी तगड़ा है। वैट 4 फीसदी है और सीएसटी केवल 2 प्रतिशत। लिहाजा अपनी सरकार ने भी जमा लिया अंगद का पांव। राजस्व वाले महकमे के प्रमुख खजांची ने अड़ंगा लगा दिया। बोले- तेल हमारी जमीन से निकाल रहे हो तो वैट ही लगेगा। तेल निकालने वालों ने खूब समझाया। बड़े पर्दे पर तस्वीरें दिखाकर प्रजेंटेशन दिया। कानून वालों की जुबानी कायदे गिनाए। ऊंची-ऊंची अदालतों के फैसले पढ़ाए, पर खजांची साहब तो 'ऊं-हूं ' के अलावा कुछ बोलते ही नहीं। तंग आकर ये भी बिचारे क्या करते...? आखिर कह ही दिया कि- सीधी उंगली से तेल नहीं निकला तो उंगली टेढ़ी करनी पड़ेगी। सरकार नहीं मानी तो अदालत जाएंगे। जज-साहब जो फैसला देंगे, वो मंजूर...।
खबरचियों ने इसी की खबरें छाप दीं। पढ़ते ही दिल को धक्का लगा। लाजिमी भी था। क्योंकि साहब! अपने-राम तो मानते हैं कि किसी बात को रबर की तरह खींचना ठीक नहीं। रबर का एक सिरा जो भी छोड़ता है, दूसरी ओर वाले को 'फ..टाक' से लगता है। चीख निकल जाती है पट्ठे की। ...सो अपने हिसाब से तो समझदारी इसी में है कि शांति से दोनों बात करें। हाथों को हौले-हौले करीब लाएं और आपस में मिला दें। इसी में हुजूरे-आला सबकी मौजां ही मौजां हो जाएगी। ना किसी को चोट लगेगी और ना होगा दर्द। पर मेरे मालिक, ऐसा हो तो सही....
- गंगू-तेली