Sunday, November 22, 2009

गंगू तेली की जयपुर यात्रा

पिछले दिनों स्नेहा शर्मा ने लिखा- कहां खो गए हो गंगूजी...? यकीनन खो तो नहीं गए थे, पर क्या करते! महीने भर से तो हम अपने में ही नहीं थे। बात ही कुछ ऐसी हो गई। वैसे तो 'अपने राम' बड़ी-बड़ी दार्शनिक बातें करना नहीं जानते। लेकिन यह बात तो जानी-परखी है सो कहे देता हूं- ज़िन्दगी में कई मौके ऐसे भी होते हैं, जब अच्छे-अच्छों का खुद से काबू छूट जाता है। अपने साथ को कई बार ऐसा हुआ।

अम्मा-बाबूजी की बातों में पड़कर अपनी आजादी गवां बैठे। घरवाली तो इसी बात पर ताना भी देती है- "अगर उस समय दिल पर काबू रखा होता, तो आज तुम्हारी बीवी बनकर दु:ख भोगने से तो बच ही जाती।" पर कहां साहब। कभी-कभी दिल की लगाम छूट जाती है। आप सब भी इसे बखूबी समझते होंगे। वैसे, आपके दिल की हमको नहीं मालूम, लेकिन 'अपने राम' तो जयपुर में इण्डियन ऑयल के डिपो में आग लगने के बाद से ही सदमे में थे। बाप रे बाप... क्या आग थी वह। आग लगने के दूसरे ही दिन राजा भोज ने आदेश निकाल दिया- गंगू तेली आग से प्रभावित स्थान का जायजा लेंगे। राजाजी का ऑर्डर कोई टाला जा सकता है भला? सो तब से गंगूजी तो जयपुर में ही डेरा डाले हुए थे। बहुत करीब से देखा सब कुछ। आग भी ससुरी दो हफ्ते तक चली। करोड़ों का तेल धुएं में बदल गया। पहले तो कीमत का पता नहीं था, पर अभी मुरली चाचा ने संसद में बताया कि आग के कारण साढ़े तीन सौ करोड़ का दिवाला पिटा है, तब से तो ब्लड प्रेशर भी आउट ऑफ कंट्रोल हुआ जा रहा है। उन्होंने बताया कि आग में 191 करोड़ रुपए के पेट्रोलियम उत्पाद जलकर नष्ट हो गए तथा आसपास के भवनों और मशीनरी को करीब 160 करोड़ का नुकसान होने का अनुमान है। तेल डिपो के सभी 11 टैंक पूरी तरह नष्ट हो गए हैं। इस टर्मिनल में आधारभूत ढांचे का पुननिर्माण करने में ही अब दो साल का समय लगेगा।


अपन को तो इस नुकसान के बारे में सुनकर ही अजीब लगता है। सीतापुरा टर्मिनल 1995 में चालू किया गया था। उस समय यह शहर से दूर तथा अलग-थलग था। बाद में सीतापुर औद्योगिक क्षेत्र बनने के साथ ही इस क्षेत्र का तेजी से विकास हुआ। नतीजा, आबादी के बीच आ गया यह इलाका। अब अपन को तो समझ ही नहीं आ रहा। किसको दोष दें? बढ़ती आबादी को या तेल वालों को लापरवाही को? खैर, एक बात को पक्की है। होनी को तो कोई टाल नहीं सकता। हालांकि लोग कहते हैं कि ऑयल टेंक का वॉल्व लीक था, पर ससुर के नातियों ने ध्यान ही नहीं दिया। कम्बख्त जब आग भड़की, तभी याद आया इसे दुरुस्त करना। लेकिन एक बार बिगडऩे के बाद तो सुधारना मुश्किल होता ही है। चाहे रिश्ते हों या मशीनें। सो आखिर पूरी तरह बिगड़ ही गया। पूरे जयपुर की सांसों में धुएं का जहर घुल गया। प्रवासी पंछियों तक को लौटना पड़ा। फ्लेमिंगो पक्षियों का कुनबा यह शहर ही छोड़ गया। आग से निकली कार्बन मोनोऑक्साइड, कार्बन-डाई-आक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड्स और सल्फर-डाई-ऑक्साइड्स जैसी गैसों के कारण इन पंछियों को सांस संबंधी दिक्कत और आंखों में जलन हो रही थी।


अपने राम तो इस आग को देखकर सन्न रह गए। कहां तो रेगिस्तान में तेल निकलने की खुशी में बौराए हुए थे, कहां इतना बड़ा नुकसान हो गया। खैर, साहब। अपन तो अब यही कहते हैं कि जो हुआ, सो हुआ। दूसरे तो सबक ले लो। कई जगह पर ऑयल डिपो की स्थितियां इससे भी बुरी है। अगर वे नहीं जागे तो राम ना करे किसी दिन और कुछ घटित हो जाए।


वैसे, आपको बता दूं कि हमारे तेलीबाड़े में एक मजनू घूमता है। पागल-दीवाना। उसके सामने कोई अगर दिल-जिगर या प्यार-मोहब्बत की बात करे तो पत्थर लेकर पीछे दौड़ पड़ता है। कहते हैं उसकी प्रेमिका उसे छोड़कर चली गई थी। इसके बाद से उसे इन अल्फाज से चिढ़ हो गई। तेल वालों के लिए यह मजनू आदर्श होना चाहिए। एक बार नुकसान झेल लिया, अब बार-बार यही करोगे क्या.......?


- गंगू तेली

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