Tuesday, September 29, 2009

फसाद की जड़

हमारे दद्दू कहा करते थे- बिटुवा! दुनिया में सारे फसाद की जड़ें सुसरी जर, जोरू और जमीन से ही निकलती है। दद्दू की बात तो अपन ने मान ही ली थी। फिर जब रामायणजी के पन्ने पलटे तो ये बात सौलह आने सच्ची भी लगी। टीवी पर रूपा गांगुली वाला महाभारत देखकर तो पक्का यकीन हो गया।
बस मियां, अपने-राम ने तो तभी तय कर लिया था कि अब ना तो जर (रुपए-पैसे या धन-सम्पत्ति) के फेर में पड़ेंगे और ना ही जोरू के। रही बात जमीन की, तो वह तो अपने पास कभी होनी ही नहीं।
अरे साहब, आप तो जानते ही हैं कि जमीनों के दाम इन दिनों एवरेस्ट की चोटी छूने की कोशिश में लगे हैं। इसलिए बस, चढ़ते ही जा रहे हैं। ऐसे में अपन तो क्या भईईईये! अपने फरिश्ते भी इंच भर जमीन खरीदने की हिम्मत नहीं कर सकते। इस तरह अपने-राम मोह-माया से दूर हो गए।
वैसे भी साहब, गीता में लिखा है कि 'नि:स्पृह' यानी किसी में मोह नहीं रखने वाला इंसान ही सही मायने में भगवान का बंदा होता है। ...और अपन तो 'नि:स्पृहों' के भी सरदार!!! इसलिए हम क्या हुए? हें-हें-हें।
खैर, बात वापस वहीं ले आते हैं, जहां से शुरू हुई थी। यानी फसाद की जड़ पर। दरअसल, अपने यहां भी इन दिनों एक फसाद चल रहा है। जर का फसाद। यानी पैसों का पंगा। ...और जब से धोरों ने तेल उगलना शुरू किया है, तब से यह काफी बढ़ गया है।
वैसे, अपने-राम ने तो कुछ महीने पहले ही कह दिया था पूत के पांव पालने में देखकर। ...कि पंगा तो होगा ही। भले ही सूबे की सरकार ने पहल नहीं की और तेल निकालने वाली कम्पनी ने ताल नहीं ठोकी, पर एक राजस्थानी के भीतर का 'तेली' आखिर जाग गया। और वे श्रीमान पहुंच गए सीधे हाईकोर्ट। जाकर बोले- माईबाप! तेल निकालने वालों ने हमसे वादा किया था कि डिलीवरी पॉइन्ट नहीं बदलेंगे, लेकिन अपना नफा देखकर वे बेवफा हो गए। वादे से मुकर गए हुजूर। तेल की डिलीवरी लेकर चल दिए गुजरात और वहां जाकर बोले, अब काहे का वैट? 'वैट' (VAT) के लिए तो 'वेट' (Wait) ही करते रहोगे सारी उम्र। हमने तो तेल राजस्थान से बाहर लाकर बेचा है। ...सो इस पर तो अब CST यानी केन्द्रीय बिक्री कर ही लगेगा।
अपने-राम तो सकते में आ गए। मुख्यमंत्रीजी ने भी इसे सरासर गलत बताया। बोले, इससे तो राजस्थान की झोली में चवन्नी जित्ता ही पैसा आएगा। बाकी तो भाई लोग बोरे में भरकर ले जाएंगे। इसीलिए सीएम साहब ने दिल्ली-सरकार के तेल वाले मंत्रीजी की मिन्नतें की, लेकिन साहब, रहना तो उनको भी दिल्ली में ही। इसलिए यकायक तो कैसे बोलें? आखिर मसला कोई हमारे जैसे गंगू-तेली का तो है नहीं। यह तो मामला भी भारी-भरकम तेली महाराज का। और वो भी ऐसे, जिन पर सात समंदर पार बैठे गोरे आकाओं का हाथ। अरे... नहीं-नहीं। ऐसे ही कुछ थोड़े बोला जाता है? जो भी कहना है, सोच-समझकर ही कहना है। इसलिए दिल्ली वाले मंत्रीजी अभी सोचने की प्रक्रिया में है।
खैर, दिल्ली वालों के सोचने तक कैसे धीरज रखते अपने 'तेली भइया'? इसीलिए वे अदालत को बीच में ले आए हैं। अब मामला न्यायपालिका के हाथ में आ ही गया है, तो हुजूरे-आला! आप भी जानते हैं। कानून का दरवाजा सीधे 'भग्गूजी' के आंगन में ही खुलता है। .... और भगवान के घर देर तो है, लेकिन अंधेर नहीं !!!
- गंगू तेली
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1 comment:

Unknown said...

बेशक आपकी रचनाये चिकनाई भरी है, गंगू भाई....
हमारी तरफ से शुभकामनाये.

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